जैसे कि मान लीजिए कोई घोंघा, कोई कछुआ, कोई पेंग्विन किसी तालाब, किसी कुएँ या सुदूर अंटार्कटिक से सीधे दिल्ली के कनॉट प्लेस या मुंबई के काला घोड़ा पर पहुँच गया हो, न सिर्फ पहुँच गया हो बल्कि सड़क पार करने की कोशिश में हो। लालबहादुर को देख कर मुझे पहली बार में ही ये सारे बिंब एक साथ दिखाई दे गए! हम एक पार्टी में थे और उसकी छात्र इकाई को कैंपस में छतनार बनाने का भार हमारे नाजुक कंधों पर ही था। हमें निर्देश थे कि अपनी नाजुकी की परवाह न करते हुए हमें लगातार अपने कंधों को घिसते, छिलते रहने देना था ताकि उन कंधों पर घट्टे उग आएँ, और जब बाद में उन पर बंदूकें लटकें तो उनका बोझ हमें मालूम न हो! हम भविष्य क्या, वर्तमान में ही अपने कंधों को वैसा ही महसूस करते और एक अदृश्य बंदूक हमेशा हमारे कंधों से लटकती रहती! हमारी उँगलियाँ हमारी गैर-जानकारी में पिस्तौल की शक्ल ले चुकी थीं। उसका गाहे-ब-गाहे पता हमें तब चलता जब हमारी चुटकियों से गोलियों जैसी आवाज आने लगती और हमारे मुँह से निकलनेवाले वाक्य मैग्जींस की तरह लोड और फायर होते जाते! हम अपने सामने किसी को टिकने नहीं दे सकते थे। हम दिन भर फायरिंग करते, दिन भर लाशों के ढेर लगाते, दिन भर दुश्मनों की टोह लेते और रात में बहुत रात में सोने से पहले, अपने कंधों पर लटकी अदृश्य बंदूक को थपथपाते तो हमारी आँखों में नींद आने के ठीक पहले वह आ जाता जिसे हम जागते हुए भी स्वप्न ही कहते थे। महान स्वप्न, महान विचार, हमारा यूटोपिया! ऐसे ही एक रात जब हम अपनी खाली हो चुकी मैग्जींस को फिर से लोड करने के लिए बैठे थे, और हमारे नेता प्रवीण यादव ने सूचना दी थी, लखन से हमारे और बड़े नेता विचारों और तर्कों के कारतूस की नई खेप ले के आए हैं, उसी रात प्रवीण ने उसका परिचय कराया था। साथी! ये लालबहादुर हैं। बलिया से हैं। आम तौर पर परिचय में फैकल्टी या डिपार्टमेंट का नाम आता था। बलिया, गाजीपुर, आजमगढ़ के परिचय की औपचारिक जरूरत कभी नहीं महसूस की गई थी! मैंने ही पूछ लिया, किस डिपार्टमेंट से! यह प्रवीण से नहीं पूछ कर सीधे उससे ही मुखतिब था जिसका परिचय बलिया के लालबहादुर के तौर पर कराया गया था। मैंने महसूस किया कि मेरे इस अति साधारण और मात्र जिज्ञासावश किये गए सवाल से वह सकपका गया। न सिर्फ सकपकाया बल्कि कातर दृष्टि से प्रवीण की ओर देखने लगा। इस साधारण सवाल की गैर-साधारण प्रतिक्रिया से हमारे बड़े नेता समेत सभी साथी उसकी तरफ सवालिया निगाह से देखने लगे। अभी परिचय के लिए काफी वक्त है साथी! फिलहाल तो हम क्लास की कार्यवाही पर ध्यान दें। प्रवीण ने यह कहा तो जरूर और हम सब खामोश हो भी गए लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है उस रात वर्ग संघर्ष, वर्गीय एकता, किसान-मजदूर एकता, वर्गीय अंतर्विरोध और पैस्सिव, एक्टिव रेसिस्टेंस जैसे भारी और जबर्दस्त सवालों पर दिमाग ने उसी सवाल को सबसे ज्यादा तरजीह दी थी, लालबहादुर कौन?
मैंने यह भी महसूस किया यह सवाल उस रात सबकी चेतना पर भारी पड़ा था! क्लास खत्म होने के बाद जब हम पदार्थ यानी तहरी पर टूट रहे थे तब प्रवीण ने एक पुराना- सा जरकैन अपनी आलमारी से निकाला था। साथी! इसमें घी है! लालबहादुर लाए हैं गाँव से हम लोगों के लिए! सबकी निगाहें फिर से लालबहादुर की तरफ हो गईं, लेकिन मैंने देखा अब वहाँ सकपकाहट या घबराहट की एक आश्वस्तिपूर्ण लज्जा थी! सर नीचा और उसी लज्जापूर्ण मुस्कुराहट के साथ एक अजीब-सी आवाज निकली हाँ...त्त्... त्त्... अउर पेड़ा भी लाए हैं। अउर ये घी जल्दी खतम कीजिएगा तो अउर ले आएँगे।
मैंने लक्ष्य किया कि जैसे माहौल ने जबरदस्ती बाँध की शक्ल ले ली थी और कमरे में हँसी का स्तर खतरे के निशान से उपर बढ़ रहा था!
प्रवीण इस हँसी की खतरनाक बाढ़ से शायद लालबहादुर को बचाना चाह रहा था। उसने तत्काल ही पार्टी में बढ़ती अनुशासनहीनता का मुद्दा उठाया और इस तरह जैसे उसने कोई गुप्त फाटक खोल कर स्तर को सामान्य कर दिया! मैं जानता था कि अनुशासन का मामला सीधे मुझसे आ कर जुड़ता था, क्योंकि शाम छह से आठ बजे तक जब हमारे तमाम साथी राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए चंदा इकट्ठा करने के अभियान पर होते, तो कई बार मैंने उस अभियान पर अस्सी घाट की लंतरानियों को तरजीह दी थी! यह एक दुखती रग थी जो मेरी ही थी, इसलिए मैं उस हँसी में भी शरीक नहीं हो पाया, जो संजीत सिंह ने बड़े नेता जी की तहरी में ज्यादा घी डाल लेने पर उपस्थित की थी। साथी ! हम जब अपने घर में होते हैं तो दाल में एक चम्मच घी भी संपन्नता लगती है और तहरी में पाँच चम्मच भी हमें यहाँ ऐसे ही लग रहा है जैसे यह तो सामान्य है, यह हमारी वर्गीय चेतना का उन्नयन है क्या? वर्ग चेतना, उन्नयन और घी, जैसे आग की लपट और घी। हँसी की वैसी ही लपट कमरे में चटख गई और साथी ! मतलब हमारे बड़े नेता जी ने हँसते-हँसते दो और चम्मच घी अपनी तहरी में डाल लिया था।
कमरे से बाहर निकल कर अपने हॉस्टल की ओर लौटते हुए हमें समूची प्रक्रिया ही अजीब लग रही थी! हमारी पार्टी की सदस्य संख्या काफी थी, लेकिन इस तरह की बैठक, जिसमें हम नए कारतूसों से लैस होते, मतलब कोर समिति की बैठक में शामिल होना हमारे जीवन की एक बड़ी घटना थी! काफी ठोंक-बजा कर, परख कर और यह जताते हुए कि एक बड़ी संख्या के बावजूद हमारी व्यक्तिगत महत्ता है, हमें इसमें शामिल किया गया था, और आज कोई घी का जरकेन और पेड़े का पूड़ा उठाए सीधे उस हैसियत में था, और उसकी फैकल्टी या डिपार्टमेंट या व्यापक छात्र समुदाय को गोलबंद कर सकने की उसकी क्षमता तक का भी हमें कुछ अता-पता नहीं था। नै। ये सब नै चलेगा। संजीत सिंह अपने हॉस्टल की तरफ मुड़ते हुए बोला... जबकि हमारे बीच इस बावत कोई बातचीत रास्ते भर नहीं थी।
सही बात है! ऐसा कैसे हो सकता है। मैं भी अपने रास्ते बढ़ते बोला। जैसे हम लोग चुप्पियों के माध्यम से किसी बड़ी बातचीत के नतीजे पर पहुँचे हों।
हम यकीनन बहुत गुस्से में थे, जब हम प्रवीण से कोर कमेटी में घी और पेड़े की घुसपैठ पर बात कर रहे थे। प्रवीण काफी धैर्य से हमारी आपत्तियों को सुनता रहा और काफी इत्मीनान से उसने कहा कि पिछली केंद्रीय कमेटी की बैठक में यह तय हुआ था कि हमारी यूनिट को कैंपस का दायरा बढ़ाना चाहिए! मतलब वे लोग भी जो इस कैंपस के छात्र नहीं हैं, लेकिन महादेवपुर, छिनूपुर, सीर गोबर्धनपुर में विभिन्न लॉजों में रहते हैं, मेडिकल, इंजीनियरिंग की तैयारी करते हैं, या पूर्वांचल के विभिन्न कॉलेजों के छात्र हैं, उन्हें भी हम अपनी यूनिट का सदस्य मानें तथा उनके पोटेंशियल का उपयोग करें। यह सिर्फ यहाँ नहीं है, बल्कि जेएनयू में भी हमने पास के सटे मुहल्ले मुनिरका में पार्टी की एक यूनिट शुरू की है जो जेएनयू छात्र समुदाय का स्वाभाविक राजनैतिक विस्तार है।
केंद्रीय कमेटी के निर्णय पर हमें बोलने का कोई अख्तियार या अधिकार नहीं था। हम इस कैंपस विस्तार की थियरी से बहुत कन्विंस्ड नहीं थे, और यदि विस्तार हो भी तो सीधे कोर कमेटी में किसी के शामिल होने पर तो खासे गुस्से में थे, लेकिन थोड़ी चुप्पी के बाद प्रवीण ने जैसे इस पर बात बढ़ाने से इनकार किया हो, साथी लालबहादुर हमारे प्रयोग का हिस्सा हैं। हम अभी उन्हें आजमा रहे हैं, हमारी बैठकों में लगातार उनकी उपस्थिति हो यह आवश्यक नहीं, वो तो प्रयोग के तौर पर उन्हें बृजेंद्र की उपस्थिति में आमंत्रित सदस्य के रूप में आमंत्रित किया गया था। वैसे भी वह कोई हमारी नीतिगत बैठक तो थी नहीं। लेकिन आप लोग इससे बेकार में चिंतित न हों बल्कि लालबहादुर से मिलेंजुलें और पार्टी को यह बताएँ कि केंद्रीय कमेटी का यह प्रयोग सफल होगा या नहीं।
अवश्य सफल होगा। पार्टी आजकल अपने वास्तविक काम को छोड़ कर ऐसे ही प्रयोगों पर ज्यादा ध्यान दे रही है। उम्मीद है अब तक हमारे फेफड़ों से चरस का धुआँ निकल गया होगा। संजीत सिंह अपनी तल्खी नहीं रोक पाया। दरअसल, पिछले कुछ प्रयोग पार्टी में निहायत अटपटे साबित हुए थे। ऐसा ही एक प्रयोग था कैंपस में कुछ ऐसे लड़कों की पहचान करना जो जीवन में एक निश्चित उद्देश्य के अभाव में भटक जाते हैं, जिनके पास संसाधनों की और खुद में पोटेंशियल की कोई कमी नहीं होती, लेकिन उचित दिशा निर्देशन के अभाव में वे अपने संसाधन और पोटेंशियल को कौड़ी के भाव खर्च देते हैं। इसी एजेंडा के तहत एक चरसी लड़का, जो ओशो कम्यून में अपने संसाधन और पोटेंशियल खरच रहा था, पार्टी में शामिल किया गया और उसकी हरकतों, आदतों और कुटैवों से निजात पाने में फिर काफी मशक्कत करनी पड़ी थी।
चरस के संदर्भ से प्रवीण को खाँसी का दौरा पड़ गया और दौरे के थमने के बाद उसने हमें बताया कि आज हम दोनों को शाम में लालबहादुर को साथ ले कर आसपास के लॉज में जनसंपर्क पर निकलना है, और साथ ही, संभव हो तो कुछ फंड कलेक्शन की भी कोशिश करनी है।
पार्टी को राहत की बहुत आवश्यकता है। संजीत अभी तक तल्ख था। लौटते हुए भुनभुना रहा था। सीधे-सीधे राहत कोष की स्थापना क्यों नहीं कर लेते हम लोग?
शाम को जब हम लालबहादुर के लॉज पहुँचे तो उससे मिलने में हमें कोई दिक्कत नहीं हुई। वह अपने लॉज में नेता जी के नाम से जाना जाता था और दो कमसिन उम्र के लड़के बड़े अदब से हमें नेता जी के पास ले आए। हमें देखते ही लालबहादुर हड़बड़ा कर उठा और उसके हाथ से दॉस्तोएवस्की का 'अपराध और दंड', जो प्रगति प्रकाशन, मॉस्को से प्रकाशित था, नीचे गिर पड़ा।
अभी आपको 'बौड़म' पढ़ना चाहिए था लालबहादुर जी! आदमी को किताबें अपने मिजाज की ही पढ़नी चाहिए। किताब उठाते हुए संजीत सिंह की तुर्शी मुझे समझ में आ रही थी, लेकिन लालबहादुर पर जैसे इस कटाक्ष का कोई असर नहीं हुआ। हें,हें,हें कामरेड! आइए, आइए साथी, आप लोग आज यहाँ आए, कमरे का मिजाज बदल गया।
संजीत पर उसके खुशामदी हें... हें ने विपरीत असर डाला। कामरेड, मिजाज नहीं, पहले अपने कमरे का संस्कार दुरुस्त कीजिए, मिजाज तक आते-आते तो काफी देर लगेगी आपको।
मैं चुपचाप उस कमरे का जायजा ले रहा था। दोनों कमसिन लड़के, जो हमें नेता जी के पास ले आए थे, चुपचाप समूचे सीन को समझने का प्रयास कर रहे थे। मैंने यह भी महसूस किया कि संजीत की तल्खी का उस पर कोई असर नहीं हुआ था। या तो उसने वक्रोक्ति को समझने की कोशिश नहीं की थी या डेढ़ स्याणा बन रहा था।
दोनों बालक अपने नेता जी का कोई इशारा पा कर वहाँ से कम हो गए।
…हाँ तो साथी, आपने बताया नहीं कि आप क्या करते हैं, मतलब क्या पढ़ते हैं?
मैंने गौर किया पढ़ने के नाम पर वह फिर थोड़ा सकपका गया।
छोड़िए न! पढ़ने-लिखने की बातें तो होंगी ही! आइए चाय पीया जाए। चाय पीते हुए मैंने जरा जोर दे कर पूछा, साथी! आप कुछ झिझक रहे हैं! आखिर आप क्या कर रहे हैं? कहाँ हैं?
मैं...त्त्...त्त् आविष्कार कर रहा हूँ! सर नीचा करके जब लालबहादुर ने यह वाक्य कहा तो हमारे हाथ से चाय का ग्लास छूटते-छूटते बचा।
क्या? क्या कर रहे हैं आप? संजीत को जैसे अपने कानों पर यकीन न था।
आविष्कार! इंजन का आविष्कार कर रहा हूँ! खैर छोड़िए न, आप नहीं समझेंगे!
क्या नहीं समझेंगे। आप यहाँ छिनूपुर के इस महादेव लॉज में, इस कमरे में बैठ कर आविष्कार कर रहे हैं... यह समझनेवाली बात तो है ही!
संजीत की बात से लालबहादुर थोड़ा नर्वस-सा दिखा! मैं तो उसके मुँह से आविष्कार की बात सुन कर ही दंग था! यह शब्द तो जैसे अब प्रचलन में ही नहीं था। प्रयोगशालाओं में जरूर कुछ खोज, किसी रिसर्च की चर्चा होती होगी, लेकिन शुद्ध समाज में, समाज के एक मुहल्ले में, मुहल्ले के एक लॉज में, और लॉज के इस कमरे में, जिसका तीन-चौथाई हिस्सा सीलन से भरा था, एक लगभग टूटी चौकी के गंदे बिस्तरे पर बैठा हुआ आविष्कार की बात कर रहा था!
...लेकिन आप आविष्कार कहाँ कर रहे हैं! कैसे कर रहे हैं? मेरे मुँह से बेसाख्ता निकल पड़ा।
...नहीं, अभी तो अपने विचार को डेवलप... अटकते हुए जब उसने कहना शुरू किया तो संजीत अचानक उठ खड़ा हुआ - ठीक है साथी! अभी हम चलते हैं, बाद में मुलाकात होगी। मैं थोड़ा और बैठना चाह रहा था। पूरा केस ही मुझे अजीब लग रहा था। लेकिन संजीत के उठ जाने से मैं भी खड़ा हो गया।
एक मिनट, साथी! कहता हुआ लालबहादुर उठा और टीन के अपने बक्से से दो सौ रुपए निकाल कर मुझे देते हुए बोला, यह प्रवीण भाई को दे दीजिएगा!
आश्चर्य की एक फुरहरी के साथ हम बाहर आ गए! इतने पैसे तो हम लोग तीन घंटे के फंड कलेक्शन में भी नहीं पा सकते थे! पैसे की तपिश से संजीत थोड़ा मक्खन हुआ, ठीक है साथी! हम फिर आएँगे। फिर बातचीत होगी।
बाहर निकल कर हमें लग रहा था, जैसे हमारा नाम एलिस हो और हम छिनूपुर के महादेव लॉज से नहीं निकल कर किसी वंडरलैंड से निकले हों।
काफी देर तक यों ही खामोश चलने के बाद संजीत ने ही हलका किया, मेंटल है साला! और हम ठठा कर हँस पड़े।
विज्ञान की किताबों से 'आओ प्रयोग करें' वाला हिस्सा निकाल देना चाहिए! काफी लोगों पर असर करता होगा।
सही बात है! मैं सहमत था। एक से तो आज हम यहाँ मिल लिए, समूचे देश का हाल हमें क्या पता?
वैसे बहुत नहीं होते होंगे। दसवीं तक तो हम भी बनाते थे क्लेडेस्कोप, रेफ्रिजरेटर और... और मैं आगे के शब्द सुन नहीं पाया। वह लगभग बुदबुदाहट की शक्ल में आत्मालाप था।
आपने बताया नहीं था कि लालबहादुर वैज्ञानिक हैं! हमने जब प्रवीण से यह सवाल किया, तो वह ठठा कर हँस पड़ा, अच्छा तो आप लोग भी परिचित हो गए उनके सिद्धांत से!
सिद्धांत नहीं, आविष्कार। वो तो आविष्कार करने की बात कर रहे थे, इंजन का आविष्कार...। मैंने बात काटना चाहा!
प्रवीण पूर्ववत हँसता रहा, हाँ...हाँ... आविष्कार तो होगा ही लेकिन उसका कोई सिद्धांत भी तो होगा न? सिद्धांत क्या है उनके आविष्कार का... यह नहीं पूछा आपने? खैर कुछ दिया है उन्होंने!
हमने लालबहादुर के दिए हुए दो सौ में से डेढ़ सौ उसे दे दिए। पचास खर्च हो गए...चाय, सिगरेट, रिक्शा।
कोई बात नहीं! हम प्रवीण से नाराजगी की अपेक्षा कर रहे थे। साथी जनता अपना पेट काट कर हमें चंदा देती है.. चंदे का एक रुपया भी खर्च करते हुए हमें हजार बार सोचना चाहिए।
क्या लालबहादुर का पेट वाकई भरा हुआ था? ये दो सौ रुपए उसके पास उजरत के थे जिसमें पचास रुपए यों ही खरच देने पर प्रवीण को भी कोई उज्र नहीं था।
हमें लालबहादुर में जबरदस्त आकर्षण लग रहा था। उसके कमरे की हालत ऐसी नहीं थी कि उन दो सौ रुपयों को उसका उजरत माना जाय। दो सौ मतलब महीने भर का मेरा पाकेट खर्च - चाय, सिगरेट, समोसा, फिल्म और ये दो सौ रुपए ऐसे कि उसमें के पचास रुपए हम कोई बात नहीं, पर खर्च सकते थे!
हम अगले रविवार को फिर लालबहादुर के यहाँ थे! हम इंजन के सिद्धांत को जानना चाहते थे। और यह भी कि यह खुड़क उसमें पैदा कैसे हुई। और यह भी कि वाकई उसके विचार या सिद्धांत में कोई दम भी है या वाकई वह खड़की या मेंटल ही है।
साथी, मैं हवा से इंजन चलाना चाहता हूँ! जैसे आप तो जानते ही होंगे कि हवा ऊर्जा का एक बड़ा साधन है... जैसे वैक्यूम जब वैक्यूम होता है, तो हवा कितनी तेजी से उसको भरने के लिए दौड़ती है, उसमें कितनी ऊर्जा होती है... मान लीजिए... पर मानिए क्यों... मैं अपने इंजन में एक हिस्से में वैक्यूम क्रिएट करूँगा... और दूसरे हिस्से से हवा की उसी ताकत का इस्तेमाल करके इंजन दौड़ाऊँगा।
वैक्यूम और हवा की बात करते-करते लालबहादुर का चेहरा आग की तरह दहकने लगा था। संजीत कुछ कहना चाहता था, लेकिन मैंने उसका हाथ दबा दिया!
लेकिन... लेकिन ये होगा कैसे, साथी? मैंने यों ही बात बढ़ाने की गरज से कहा।
होगा... होगा साथी! जरूर होगा! देखिए जैसे कि यह इंजन का मॉडल है... यह उसका खाना है जिसमें पिस्टन से वैक्यूम क्रिएट होगा और यह पंप जिससे हवा अपने पूरे दबाव से... लालबहादुर एक रफ कागज पर आड़ातिरछा कुछ काटते-पीटते जा रहे थे। पूरे आधे घंटे की कवायद के बाद उन आड़ीटेढ़ी लकीरों के बावजूद हम केवल इतना समझ पाए कि हवा में बहुत ताकत होती है, और वैक्यूम में तो उसकी ताकत कमाल की होती है!
हम जोर से हँसना चाह रहे थे! हम बताना चाह रहे थे कि हँसने में भी बहुत ताकत होती है, और यदि हम अभी जोर से हँस दें तो यह इंजन तो क्या इस तरह के कई इंजन उड़ जाएँ...।
लेकिन हम अभी लालबहादुर का इंजन उड़ाना नहीं चाहते थे। हम अभी उसके साथ खाना चाहते थे, और यदि संभव हो तो कोई बात नहीं वाला दस-बीस भी झटक लेना चाहते थे! उस दिन हमारे दोनों चाहना पूरे हुए। खाना खाते हुए लालबहादुर ने कहा, साथी! यह इंजन साम्यवादी इंजन होगा। अभी तो ऊर्जा के साधनों जैसे पेट्रोल, कोयला, तेल, सब पर तो पूँजीपतियों का कब्जा है लेकिन जरा सोचिए...हवा...हवा पर तो सबका अधिकार है, तब... समझिए जब ये इंजन बन जाएगा तब ऊर्जा के संसाधन पर सबका अधिकार हो जाएगा... फिर... साम्यवाद आने में कितनी देर लगेगी!
फिर चलते हुए जब हमने बीस रुपए की फरमाइश की तो उसने पचाए रुपये देते हुए कहा, खुचड़ा नहीं है... यही रख लीजिए, वैसे भी ये रुपया कितने दिनों तक चलेगा। कहते-कहते उसका चेहरा निर्वेद दिखने लगा!
मतलब! कितने दिन चलेगा, क्या मतलब है आपका? पचास के नोट को जल्दी से पाकेट में रखते संजीत ने पूछा।
मतलब यह रुपया क्या है डॉलर का बच्चा है। और... और डॉलर क्या है... पेट्रोलियम की ताकत है... पेट्रो-डॉलर... सोचिए जब यह इंजन बन जाएगा तब पेट्रोलियम की कीमत क्या हो जाएगी। पानी से भी सस्ता! और सस्ता क्या बेकार ही-सा कोई द्रव होगा। वह बेमोल बेभाव, फिर डॉलर... बेचारा और ये रुपया.... हा...हा...हा!
हम सनाके में थे। हवा की ताकत के बारे में लालबहादुर के विचार दसवीं कक्षा से आगे के नहीं थे। और इसी कच्चे आधे बच्चे, विचार के साथ वह दुनिया को यू टर्न देने की बात कर रहा था। सुनो अमेरिका के नासावालो, भारत के भाभा रिसर्चवालो, इसरोवालो, रूस, चीन की तमाम प्रयोगशालाओं में अपनी तमाम उम्र खपानेवाले खब्ती वैज्ञानिको, सरकार के अरबों रुपए डकारनेवालो, आईआईटी के शेखीबाज मुफ्तखोरो, सुनो...सुनो कि मैंने अभी क्या सुना है... छिनूपुर के इस महादेव लॉज के इस सीलन भरे कमरे में अभी कौन-सा प्रयोग चल रहा है। सुनो... सब खत्म हो जाएगा। ये पूँजी, ये पूँजीपति, ये डॉलर, ये पेट्रो-डॉलर, ये रूबल, ये फ्रैंक, ये दीनार... सब खत्म! नया इंजन आ रहा है... हवा से चलनेवाला इंजन...। हवा पर सबका अधिकार है... सबका... और बराबर का अधिकार है। सीआईएवालो, सोवियत यूनियन को विघटित करने की तुम्हारी सारी कोशिशें नाकामयाब हुईं। छिनूपुर का यह महादेव लॉज तुम्हारी नजरों से बच गया... अब सब खत्म। पूँजीवाद...हा...हा... अब तेरा क्या होगा कालिया? हँसी के उस दबाव को, जो निश्चय ही हवा की ताकत से ज्यादा असरदार था, को दबाए हम लॉज से बाहर आए... बाहर आ कर हमने ताजा हवा में साँस ली! हम पहले थोड़ा और फिर खुल कर हँसे। हमारे आसपास खूब हवा थी। हम हवा को महसूस कर सकते थे, अभी तो हमें लग रहा था जैसे हम हवा को छू भी सकते थे।
हवा! तुम सचमुच ताकतवर हो! संजीत जैसे हवा से बातें कर रहा था। इतनी ताकतवर हो तभी तो इतने पुल, इतने किले जो तुम पे बनते हैं सबको थामे रहती हो...
सब हवा हो जाएगा... मैंने उसके सुर में सुर मिलाया!
हवा खराब हो जाएगी सबकी...
'हवा...हवाई... हवा हवाई' मैं गुनगुनाने लगा।
हवा हूँ... हवा मैं बसंती हवा हूँ... बड़ी बावली हूँ... बड़ी मस्तमौला, संजीत जैसे हवा से नीचे ही नहीं उतर रहा था। लगभग हवा पर सवार हो कर ही अपने-अपने हॉस्टल पहुँचे थे!
अब हमें पार्टी बनाने और जनता को गोलबंद करने की क्या जरूरत है। लालबहादुर का इंजन आ ही रहा है, सब बराबर हो जाएगा। अगली बैठक में जब हमने प्रवीण से यह कहा तो उसने जैसे इस पर ध्यान ही नहीं दिया। उलटे काफी संजीदा हो कर उसने पार्टी में आ रहे गतिरोध और इससे निपटने में आ रही दिक्कतों का जिक्र छेड़ दिया। वैसे हमारी पार्टी आम छात्रों में काफी लोकप्रिय थी, परंतु हॉस्टल के लड़के खुल कर हम लोगों के साथ नहीं आ पाते थे। हॉस्टलों की सवर्ण गोलबंदी आपसी फूट के बावजूद हमें प्रताड़ित करने में एकजुट हो जाती। अपनी सक्रिय भागीदारी के बावजूद हम यदि पीटे नहीं जाते थे तो इसका एक बड़ा कारण हमारा सवर्ण होना था। लेकिन सब सवर्ण नहीं थे, वे भी खुल कर भागीदारी करना चाहते थे, सक्रिय गतिविधि चलाना चाहते थे। नतीजा, हमारे साथियों के साथ अकसर मारपीट हो जाया करती थी। मारपीट शायद सही शब्द नहीं बल्कि यों कहें कि हमारे साथी अकसर पीटे जाते थे और उससे हमारी पार्टी के मनोबल पर विपरीत असर पड़ता था। ऐसे ही किसी गतिरोध में हम फँसे थे! हमारे साथी यतींद्र यादव को पिछले दिनों हॉस्टल में सरेआम बेल्ट से पीटा गया था और अब वह हॉस्टल में रह पाने की मनःस्थिति में नहीं था। हम सब कहना चाहते थे चलके उनको भी पीटा जाए। ज्यादा से ज्यादा वो चार मार पाएँगे, हम दो तो मारेंगे ही! इससे हमारा मनोबल भी बढ़ेगा।
संजीत तो लगभग प्रस्ताव ले ही आया था। साथी! अब कोई और रास्ता नहीं है! इस तरह पिटते रहने से हमारी इमेज सिर्फ डरे हुए लोगों के झुंड की हो कर रह जाएगी! कौन यकीन करेगा कि हम भविष्य में जनता को मुक्ति संघर्ष के लिए तैयार करनेवाले हिरावल दस्ते के लोग हैं!
लेकिन इस जोशीले प्रस्ताव से प्रवीण सहमत नहीं था। नहीं साथी! इससे हॉस्टल की नार्मलसी बाधित होगी! फिर ये वो लड़के हैं जो चौबीस घंटे इस तरह की गतिविधियों में इन्वाल्व रहते हैं। इनसे इन्हीं की भाषा में उलझना हमारी अन्य रचनात्मक गतिविधियों को बाधित कर सकता है। हमें हॉस्टल की अपनी अंदरूनी ताकत पर ही यकीन करना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि प्रतिरोध स्थानीय स्तर से उपजे। नहीं तो...फिर अभी चुनाव बहुत नजदीक हैं और इस तरह की एक्टिविटी से हमारी तैयारियों पर असर पड़ सकता है।
प्रवीण की आखिरी बात से हमारा क्रोध और बढ़ सकता था। दरअसल सिद्धांततः छात्र संघ चुनाव में हम भागीदारी इसलिए ही करते थे कि शिक्षा और रोजगार के सवालों को हम ज्यादा बड़े मंच से असरदार तरीकों से उठा सकें। लेकिन हम महसूस कर रहे थे कि पिछले चुनाव से ही प्रवीण की महत्वाकांक्षा चरम पर पहुँच गई थी। पार्टी का प्रदर्शन शानदार था और प्रवीण अध्यक्ष पद से मात्र तीन सौ वोटों की दूरी पर रह गया था, और इस बार हमें पूरी उम्मीद थी कि अपनी विपक्षी पार्टी के लिए हम यह दूरी छह सौ बना देंगे। लेकिन यह हमारा गोल नहीं था, हम सिर्फ चेतना के निर्माण के लिए चुनाव की प्रक्रिया में थे। सिर्फ कैंपस में ही क्यों! समूचे देश में भी हम चुनाव लड़ते ही इसलिए थे कि संसद और विधान सभाओं की असलियत हम जनता के सामने ला सकें। लेकिन हम महसूस कर रहे थे कि चुनाव आते ही हमारी ही असलियत हमारे सामने और जनता के सामने आ जाती! हम अपने सिद्धांतों और नारों से अपनी असलियत छुपाने का प्रयास करते। ये नारे, सिद्धांत अजीब रंग की शक्ल में हमारे चेहरों से चिपक जाते और रह जाते हम सिर्फ जोकर, विदूषक। यतींद्र की पीठ के निशान हमारी पार्टी का चुनावचिह्न नहीं हो सकते थे। हमें देश में, समाज में, समूचे विश्व में अपना निशान छोड़ना था, घोर अपमान और पीड़ा की ऐसी सघनता में छात्र संघ चुनाव की चर्चा पीठ के घाव पर मिर्च और नमक घिसने जैसा था! हम विरोध करना चाहते थे, लेकिन प्रवीण हमारा नेता था, और वैसे भी हम अनुशासनहीन समझे जाते थे। हमारे भय ने हमें चुप रखा और मीटिंग समाप्त हो गई कि हम हास्टलों में स्थानीय स्तर पर प्रतिरोध जारी रखेंगे! अपनी रचनात्मकता से उनकी आक्रामकता का जवाब देंगे। मतलब हम कुछ नहीं करेंगे! चुनाव का इंतजार करेंगे।
मीटिंग के बाद प्रवीण कुछ दूर तक हम लोगों के साथ आया! रास्ते में उसने प्रसंग बदला, तो आप लोग जान आए लालबहादुर के इंजन का सिद्धांत? हवा की ताकत का अंदाजा हुआ आपको? वैसे हवा हमारे पक्ष में बह रही है कामरेड, बस जरा-सा ध्यान और धैर्य रखना है। हाँ... लालबहादुर को जरा हैंडल विद केयर, कहीं जल्दबाजी में आप लोग उसका इंजन न तोड़ डालिएगा! अभी पार्टी को उसके इंजन की जरूरत है!
पार्टी को तो नहीं लेकिन प्रवीण को अभी लालबहादुर के इंजन की सख्त जरूरत थी! इंजन के हवा का दबाव हवा के बहाव को अपने पक्ष में करने में कारगर हो सकता था! लेकिन लालबहादुर के इंजन के लिए भी तो पार्टी की जरूरत होनी चाहिए थी! वरना एक हाथ से आवाज चाहे जितनी निकाल लीजिए, ताली तो नहीं ही बज सकती है!
अगली बार जब हम लालबहादुर के यहाँ थे तो प्रवीण वहाँ पहले से उपस्थित था! हवा में गोश्त राँधे जाने की खुशबू थी। माहौल काफी खुशनुमा था और लालबहादुर अपने समूचे मनोयोग से प्रवीण को इंजन का मॉडल समझाने में व्यस्त था। हम लोगों को देखते ही प्रवीण का बल्ब जैसे 'लो वोल्टेज' का शिकार हो गया था! लेकिन काम तो काम था, मतलब लालबहादुर के इंजन के लिए पार्टी की उपयोगिता तो सिद्ध करनी ही थी।
देखिए लालबहादुर! प्रवीण ने रफ कागज पर उकेरे उस हवाबाज इंजन के मॉडल को परे रखते हुए कहा, ये सब तो ठीक है कि इंजन बन जाएगा। और यह इंजन हवा से ही चलेगा और हवा पर सबका अधिकार है, लेकिन...
लेकिन...लेकिन क्या कामरेड...? लालबहादुर को पहली बार दुनिया बदलने के अपने सिद्धांत में कोई गड़बड़ी महसूस हुई! लेकिन... यह व्यवस्था! क्या आपको लगता है कि हवा पर सबका अधिकार है? यह अधिकार सिर्फ हवा का साँस लेने के लिए उपयोग करने का अधिकार है।... आप समझ लीजिए... इंजन के लिए हवा का उपयोग करने का अधिकार नहीं होगा इस व्यवस्था में! समझे?
लालबहादुर का मुँह इतना खुला था कि उसमें हवा की ठोस उपस्थिति को मापा जा सकता था!
इसलिए मैं कह रहा था, कामरेड! इंजन का आविष्कार होने से दुनिया नहीं बदल जाएगी! आपके इंजन को यह व्यवस्था जब्त कर लेगी! उसे मनचाहे लोगों, बड़े पूँजीपतियों को दे देगी। तब! तब आप क्या कीजिएगा? विरोध करेंगे? बड़े-बड़े विरोधियों को यह व्यवस्था खा चुकी है। आप देखते नहीं हैं, आज शुद्ध ऑक्सीजन लेने के लिए भी बड़े-बड़े क्लब खुले हुए हैं! उसका भी पैसा देना पड़ता है! हवा पर सबका अधिकार है तो ऑक्सीजन क्या है? हवा नहीं है! इस व्यवस्था में हवा पर सबके अधिकार का मतलब कार्बन मोनोक्साइड पर सबका अधिकार होना है ऑक्सीजन पर नहीं! समझे!
आखिर, ऐसे ही प्रवीण हमारा नेता नहीं था!
हवा पर सबका अधिकार संबंधी उसके तर्क से हम खुद सहमत थे! लालबहादुर की असहमति का तो खैर सवाल ही नहीं था!
इसलिए साथी! अभी कुछ दिन रुक जाइए! पहले व्यवस्था बदल जाने दीजिए! बल्कि बदल क्या जाने दीजिए... व्यवस्था बदलने में सहयोग कीजिए। पहले... नया समाज बनाइए, तब ये नई बातें होंगी!
हम खाना खा रहे थे! लालबहादुर से खाया नहीं जा रहा था!
व्यवस्था बदलने में तो काफी देर है अभी! फिर इंजन... वे तो इसे तुरंत बनाना चाह रहे थे! अभी बनाना खतरे से खाली नहीं! सही बात है... कई जीनियस इस व्यवस्था में, जेल में एड़ियाँ घिस कर मरे! लालबहादुर की क्या बिसात!
खाना खत्म होने के बाद लालबहादुर ने उसी बक्से में से सौ रुपए के दस कड़कदार नोट निकाले! प्रवीण की जेब में जबरदस्ती ठूँसता-सा बोला, साथी! आप लोग तो कोशिश कर ही रहे हैं... व्यवस्था बदलने की, मुझसे जितना बन पड़ेगा... जो है मेरे पास... सही बात है... व्यवस्था को तो बदलना ही पड़ेगा!
प्रवीण को इतनी जल्दी और ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी! वह हम लोगों से आँखें नहीं मिला पा रहा था! वह हमारा नेता था। हमारी सोच, हमारे विचार का नेता था। हमारे समाज को उससे बहुत उम्मीदें थीं! लालबहादुर गाँव से आया था। प्रवीण गाँव का भी नेता था! वह हमारे भविष्य का नेता था। वह उस वक्त हमारी आकांक्षाओं का चेहरा था। लेकिन अभी उसकी जेब में किसी की भोली, मासूम इच्छाओं, मान्यताओं का बंधपत्र था! वहाँ हजार रुपए नहीं थे, वहाँ हजार चीत्कार, हजार सिसकियाँ थीं। वह शिवि के मांस का टुकड़ा, वह दधीचि की हड्डी। वे हजार रुपए... लेकिन वे हमारे समय के सिर्फ हजार रुपए थे। प्रवीण चुपचाप उठ कर चला गया! ऐसे कई हजार रुपए उसे और निकालने थे... आखिर व्यवस्था का सवाल था...और व्यवस्था के बदलने का भी! हमारी समूची पार्टी को अभी छात्र संघ चुनाव में दौड़ना था और हमारा इंजन तो प्रवीण ही था! उसे लालबहादुर ने नहीं, इसी व्यवस्था, इसी समाज ने बनाया था और... और सबसे बड़ी बात, वह हवा से नहीं चलता था और हम? हम भी हवा में उड़ते जरूर थे... हवा से चलते नहीं थे।
उस रात के बाद से हमें लालबहादुर से प्यार हो गया ! कोई कितना भी मासूम, कितना भी निश्चल, कितना भी भोला हो, लालबहादुर नहीं हो सकता! मूर्खता, यह शब्द लालबहादुर के लिए हिंसक था! यदि वह मूर्ख था तो हम क्या थे? हम लालबहादुर के लिए खीझ और हँसी, खिल्ली और दया से ऊपर उठ चुके थे। हम सिर्फ उससे प्यार कर सकते थे। हम उसके भोलेपन की गिरफ्त में थे!
चुनाव की चालें तेज हो चुकी थीं। हमारा चुनाव हो चुका था। हम महसूस कर चुके थे कि लालबहादुर को चुन लिया गया है। प्रवीण का चुनाव जीतना तय था। हम उसके तयशुदा कार्यक्रम का हिस्सा थे। लेकिन धीरे-धीरे हम लालबहादुर के हिस्से में जा रहे थे। हम लगभग रोज लालबहादुर से मिल रहे थे। हम ताक में थे कि लालबहादुर को इंजन की हवा से निकाल कर जमाने की हवा की ताकत से परिचित करा सकें! लेकिन लालबहादुर बताते थे कि वे जमाने से ज्यादा परिचित थे। हमने उन्हें समझाया कि हवा की इस ताकत का अंदाजा तो मनुष्यता को बहुत पहले से है। आखिर और लोग जो वाकई विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रहे हैं वे क्यों नहीं इस सिद्धांत और मॉडल पर बात करते हैं? जवाब में लालबहादुर ने हमें बताया कि यही तो सूझ होती है, साथी। इसी सूझ के आधार पर सभ्यता का विकास हुआ है। पतीले का ढक्कन उलटते हुए भाप से, हजारों- लाखों लोगों ने देखा होगा, लेकिन भाप की उस ताकत का अंदाजा किसे हुआ - जेम्स वाट को ही न? एडीसन कौन था? कितना पढ़ा-लिखा था! आइंस्टन की क्या शिक्षा थी! वे सारे आविष्कार जो मनुष्यता के विकास के विविध चरण समझे जाते हैं, वे सब सूझवाले लोगों के दिमाग की उपज हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त करके बड़ी संस्थाओं की प्रयोगशालाओं से सिर्फ अमीरों को और सुविधाभोगी बनानेवाले आविष्कार होते हैं। असली आविष्कार हम जैसे लोगों ने ऐसे ही कमरों में बैठ कर किया।
हम लालबहादुर से सहमत थे। ये सारी बातें, ये सारे विचार सही थे लेकिन यह जेम्स वाट, थॉमस अल्वा एडीसन और आइंस्टीन का युग नहीं था। और उससे भी बड़ी बात हम यह जानते थे, यदि यह उनका युग हो भी तो वे जेम्स वाट, एडीसन या आइंस्टीन नहीं थे, वे लालबहादुर थे, सिर्फ लालबहादुर। लेकिन लालबहादुर को ऐसा कोई कारण नहीं दिखता था कि उन्हें किसी कदर जेम्स वाट या थामस एडीसन से कम समझा जाए! ये लोग तो पढ़ाई-लिखाई में भी तेज नहीं थे और लालबहादुर दसवीं और बारहवीं दोनों मेरिट से पास थे। उनके गाँव की औसत पढ़ाई मैट्रिक थी और महत्तम नौकरी सेना और पुलिस का जवान! ऐसे में दोनों परीक्षाओं में, जो भविष्य के जीवन की नींव मानी जाती हो, मेरिट में आना दशकों तक याद रखी जानेवाली घटना थी! जब उनका नाम अखबारों में शाया हुआ था तो आसपास के गाँवों के लोग भी दल बाँध कर लालबहादुर के घर बधाई और आशीर्वाद देने आए थे। पिता जंगी यादव और दोनों बड़े भाई जो सेना में जवान थे, लालबहादुर की इस चमत्कारिक उपलब्धि पर भौंचक थे! लालबहादुर न सिर्फ इस गाँव का, बल्कि समूचे इलाके का नाम अब रोशन कर देगा, यह बात इतनी बार, इतने लोगों द्वारा और इतनी आश्वस्ति और विश्वास से कही गई कि लालबहादुर को नींद में भी वे आवाजें हौसला बढ़ाती-सी लगतीं! हजारों लोगों की आँखों में, आवाजों में उनके छुअन में यह बात थी कि लालबहादुर तेज हैं, जीनियस हैं, ब्रिलिएंट हैं और इस गाँव में, इस समाज में, इस भूमि पर वे पैदा नहीं हुए हैं, बल्कि उनका अवतरण हुआ है। इन्हीं आवाजों के बैकग्राउंड म्यूजिक के शोर में उन्होंने दो बार इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा दी और दोनों बार उनका कहीं नामोनिशान नहीं था। उस गाँव में किसी को नहीं पता था कि इंजीनियर, डॉक्टर या आई.ए.एस. स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालय में नहीं बनाए जाते। उनके लिए अलग से वर्कशॉप होती है, जिन्हें कोचिंग सेंटर कहा जाता है। खुद लालबहादुर भी हैरान थे कि वे परीक्षाओं में मेरिट से पास हुए हैं, और यहाँ किसी तरह भी पास होने से वंचित थे! उन्होंने किसी को नहीं बताया था कि इन दो सालों में उनका अर्श से फर्श तक का सफर कैसा था और क्या था। वे महान थे, आदर्श थे, जीनियस थे, लेकिन इनके अलावा भी वे कुछ थे, वे कमजोर थे, डरे हुए थे, परेशान थे, ये बातें वे किसी से कह नहीं सकते थे! ये बातें क्या! वे अपनी कोई बात किसी से नहीं कह सकते थे! उन्हें अब कोई बड़ा काम करना था, बड़ा काम करके बताना था। लोगों की आँखें उन्हें देख रही थीं, वे छुप नहीं सकते थे, भाग नहीं सकते थे, उन्हें उनके बीच लगातार दिखते हुए अपने आप से, अपनी असफलताओं से चुपचाप लड़ना था। अपनी सफलता और असफलताओं से छुपना भी था। ऐसे ही छुपाछिपी में, वे उन महान वैज्ञानिकों की कहानियों के पीछे जा छुपे थे। वे अपने आपको उनकी श्रेणी में खपा देना चाहते थे। छुपते-छुपते उन्हें पता ही नहीं चला कि कब उन्होंने खुद को उनमें शामिल भी कर लिया। अब वे अपनी नजर में, अपने आईने के सामने, दूसरों की, अपनों की आँखों में एक ही चीज थे, वैज्ञानिक! वैज्ञानिक जिसे विज्ञान के नियमों को उसकी जटिल सांख्यिकी को, उसके अबूझ और कठिन समीकरणों को साधना, सुलझाना नहीं था। प्रयोगशालाओं में जाने की, प्रयोगों में अपना खून जलाने की, आत्मा का ताप सहने की, बेजार होने की कतई जरूरत नहीं थी। उन्हें केवल अपनी सूझ को बढ़ाना था। किसी ऐसे क्षण का इंतजार करना था जब पेड़ से सेब गिरता हो, भाप से पतीली का ढक्कन उलटता हो और एक ऐसे क्षण का भी जब ये साधारण-सी दिखनेवाली घटनाएँ समूची सभ्यता में उलटपुलट कर सकने लायक मानसिक भूचाल बनाती हैं। ऐसे किसी क्षण के बारे में वे बहुत आश्वस्त और तय नहीं थे कि वह उनके जीवन में आ ही चुका है। लेकिन जब से हवा की ताकत के बारे में उन्होंने बात करना शुरू किया और लोगों ने उनके तर्कों पर मुँह बनाना शुरू किया, उन्हें लगने लगा था कि जेम्स वाट, न्यूकोमैन के बाद तीसरी बार जब तब सभ्यता करवट लेगी तो वह लालबहादुर के भरोसे लेगी। उन्होंने पहले दबे स्वर से फिर आमफहम बातचीत में और फिर जोरशोर से इस आशय का एलान किया, हवा की ताकत का इंजन बन जाए तो फिर वे कई और इंजन बनाएँगे जैसे तड़ित इंजन। जब आकाश में बिजली चमकती है तो कितनी ऊर्जा पैदा होती है। उसी आकाशीय घटना की परिस्थिति को यदि किसी इंजन में घटित करवा दिया जाए तो क्या वह तड़ित इंजन नहीं हो जाएगा? इसमें होता क्या है? ऋणात्मक और धनात्मक दो बिंदुओं को मिलाना भर ही तो है!
गाँव में ऋणात्मक और धनात्मक बिंदुओं को मिलाने का काम थोड़ा जटिल साबित हुआ। दरअसल अपनी चढ़ती के दिनों में जब लालबहादुर की जय उनके कानों और उनके अवचेतन में गूँज रहा था, गाँव के ही एक ठाकुर साहब की लड़की लकी सिंह ने इन्हें गुड लक कह दिया! न सिर्फ लड़की ने कहा बल्कि लड़की की माँ ने यह भी कहा कि हालाँकि लालबहादुर बहुत बड़े आदमी हैं और इसमें उनका थोड़ा समय भी नष्ट होगा, लेकिन गाँव का होने के कारण उन लोगों का भी उन पर हक है, इसलिए वे लकी सिंह को थोड़ा गाइड कर दें, ताकि वह भी उनके पदचिह्नों पर चल कर अपना जीवन कुछ सार्थक कर ले।
मेरिट में आने से पहले लालबहादुर ने लकी सिंह को सिर्फ मुंडेर या झरोखे से देखा था, सपने की बात दूसरी है। लेकिन जब साक्षात लकी सिंह को एक हाथ की दूरी से महसूस किया तो वहीं ऋणात्मक धनात्मक का विस्फोट हो गया। लालबहादुर ने उस आकाशीय घटना की चमक और कौंध उस लड़की की आँखों में महसूस की, लेकिन चमक के बाद की गड़गड़ाहट से समूचे गाँव की कानाफूसी से एक शोर-सा उठने लगा था! ठाकुर और यादव, ऋणात्मक और धनात्मक! एक तेज चमक के साथ, एक कानफाड़ू शोर के साथ, एक सर्वनाश के साथ, गाँव पर गाज गिरने की आशंका बलवती हो उठी थी। लकी सिंह की माँ ने भी एक दिन कहा, बचवा! तुम बहुत बड़े आदमी हो! बचिया तो बहुत छोटी है, ये बिजली चमकने, हवा की ताकत और इंजन की बात उसकी समझ में नहीं आएगी। तुम कहते हो तो ठीक ही कहते होगे बेटा, लेकिन अब तो बिटिया कुछ-कुछ गणित सीख गई है, अब और सीख कर क्या करेगी? ब्याह भर तो हो ही गया है।
लालबहादुर को गणित का थोड़ा-बहुत ज्ञान था। वे बात को समझ रहे थे। क्या हैं ये लोग, सिर्फ ठाकुर ही न? रही होगी कभी चीनी मिल इनके पास लेकिन आज तो औकात मिल में चौकीदारी की भी नहीं रही! लेकिन वाह री अकड़? कहाँ तो लड़की को हमारे पदचिह्नों पर ही चला रही थी और कहाँ आज पगघुँघरू बाँधने पर आमादा है। सब समझते हैं लालबहादुर। लेकिन रुको गाँववालों, लकी के अनलकी माँ बाप भाइयो। तुम्हारी लकी ने ही मुझे गुड लक कहा है और वाकई यदि ऐसा हुआ तो...। वह इंजन यदि बना तो? तो ये ठाकुर, बनिया, बामन और यादव रह पाएँगे क्या? और फिर भी यदि तुम रहे ठाकुर ही तो इंजन बनने के बाद लालबहादुर 'यादव' ही रह जाएगा? अभी यदि राहुल गांधी या सलमान खान या बिल गेट्स तुम्हारी लकी सिंह का हाथ माँगें तो क्या कह सकोगे कि नहीं... नहीं... तुम तो पारसी, मुसलमान और ईसाई हो...! थोड़े दिन, बस थोड़े दिन...। उन्होंने बिजली की उस चमक को, हवा की उस सनसनाती ताजगी को आखिरी बार लकी सिंह की आँखों में और उसकी आती-जाती साँसों में महसूसने की कोशिश की। लेकिन बहुत कोशिश के बाद भी लकी सिंह की आँखों में जो उन्हें दिखाई दिया वह था बियावान सन्नाटा, और साँसों की गति! हिंदुस्तानी लड़कियाँ साँस लेती भी हैं क्या?
जब लकी सिंह की आँखों में ही बियावान था तो अब गाँव की हरियाली का क्या करना था? जब वो साँस ही नहीं ले रही थी तो गाँव में हवा की ताकत को क्या बताना। एक बियावान, एक सन्नाटे से लड़ते हुए लालबहादुर फिर से हवा की ताकत को महसूसते हुए, हवा की ताकत को बताते हुए, हवा बनाते हुए, हवा से चलनेवाले इंजन के आविष्कार की कल्पना करते हुए बनारस के छिनूपुर के महादेव लॉज में थे! यहीं उन्हें वैक्यूम का अर्थ समझ में आया, और समूची ताकत से लगभग वैक्यूम में हवा की ताकत से प्रवीण ने और साथ-साथ हमारी पार्टी ने लालबहादुर के जीवन में प्रवेश किया था, और उसके असर से अब लालबहादुर कैंपस, लॉज, विचार, राजनीति, साहित्य और विज्ञान में डोल रहे थे, वे जमीन पर अब आ नहीं सकते थे, वे हमेशा एक अदृश्य इंजन में बैठे रहते, और अब तो फर्क करना भी मुश्किल था कि लालबहादुर इंजन बना रहे थे, या इंजन के खयाल ने लालबहादुर को बनाया था। और तो और, हम बातचीत में भी लालबहादुर को इंजन ही संबोधित करने लगे थे, इंजन आया था आज.... या चलोगे इंजन के यहाँ!
हम जानते थे कि प्रवीण लालबहादुर को इंजन से बाहर निकाल सकता था, कम से कम लालबहादुर को इंजन से अलग तो कर ही सकता था, लेकिन उसे भी ईंधन की जरूरत थी, उसे ही नहीं, हमारी पार्टी को भी अभी चुनाव में ईंधन की जरूरत थी। ईंधन का एक छोटा हिस्सा लालबहादुर पूरा कर सकते थे, अपने उन दोनों फौजी भाइयों से आविष्कार करने के नाम पर, इंजन का आविष्कार करने के नाम पर, और वे दोनों फौजी भाई भी कैसे हाथ खड़े कर सकते थे; एक तो लालबहादुर मेरिट में थे, दूसरे वे सौतेले भाई थे! पैसा न दें तो क्या जमाने को कहने दें कि सौतेला था, तो लालबहादुर को अवसर नहीं दिया गया। भारतीय फौज लोगों को कुछ कहने का मौका कब देना चाहती है! वे फौज में थे, और सीमा पर चाहे जितना कष्ट हो, फौजी अपने रक्षितों को कष्ट में नहीं रख सकता! लालबहादुर अपने भारतीय सैनिक भाइयों द्वारा रक्षित थे, और प्रवीण के लिए, हमारी पार्टी के लिए, हमारी पार्टी में छात्र संघ चुनाव में शिरकत के लिए ईंधन थे, जब कि हम न सिर्फ जानते थे, बल्कि महसूस कर सकते थे कि वे सिर्फ इंजन थे, जो बनाया ही नहीं जा सकता था।
लेकिन लालबहादुर को यह बताया नहीं जा सकता था कि वे बनाए नहीं जा सकते, वो भी जब वे खुद भी बहुधा महसूस करते थे कि उन्हें बनाया जा रहा है, और वो भी तब जब वे अपने भाइयों को बनाने की कोशिश करते। इस कोशिश में वे अपने भाइयों को, अपने फौजी भाइयों को, अपने इंजन, उसके विकास, उसकी कठिनाइयों, और उसके विकास के बारे में लंबे-लंबे पत्रा लिखा करते। उन पत्रों का कोई जवाब नहीं आता, लेकिन वहाँ से आनेवाले मनीआर्डरों के हिसाब से वे जवाब पढ़ने की कोशिश करते।, खतो- किताबत के आखिरी सिलसिले में उन्होंने लिखा था कि टाटा और बजाज से बात हो चुकी है, लेकिन उनकी माँग है कि मैं एक डिमांस्ट्रेशन दिखाऊँ तब वे आगे बात करेंगे। लेकिन मैं डिमांस्ट्रेशन से डरता हूँ, कि जैसे ही यह सफल होगा, मेरा अपहरण कर लिया जाएगा, इसलिए हमें अपनी सुरक्षा के लिए सचेत रहना चाहिए, बिना सुरक्षा के डिमांस्ट्रेशन देना खतरे से खाली नहीं। उस बार मनीआर्डर की पावती पर अंकित था, मॉडल बनाके दिखा, खतरे से मत डरना, हम लोग हैं, बीस हजार की रकम थी, तो उस मनीआर्डर में दोतीन हजार रुपए माँगनेवाले लालबहादुर को उस पावती पर पढ़ना पड़ा। अब कोई नहीं है तेरा, ये बीस हजार खरच और अपनी सुरक्षा की चिंता कर।
यह सिर्फ लालबहादुर ने ही नहीं पढ़ा, हम सबने पढ़ा, हम प्रवीण को भी पढ़ाना चाहते थे, लेकिन वह कोई और पाती पढ़ चुका था, 'मन लेहुँ पे देहुँ छटाक नहीं'; वह और कुछ नहीं पढ़ना चाहता था, कुछ पढ़ने की उसकी उम्र भी बीती जा रही थी। वह छात्र होने की योग्यता के आखिरी चरण में था। यदि इस बार भी वह नहीं जीतता, तो छात्र नेता होने की भी, यह उसकी आखिरी ही कोशिश होती। वह हमारा नेता था, और हम अपने नेता की कोशिशों को बेकार होते नहीं देख सकते थे।
छात्र संघ चुनाव की तिथियाँ घोषित हो चुकी थीं। हम अपनी तैयारियों में व्यस्त थे, कुछ समय तक लालबहादुर भी हमारे साथ रहा, लेकिन कैंपस राजनीति में उसकी कोई विशेष उपयोगिता नहीं थी। व्यस्तता के कारण हम छिनूपुर के महादेव लॉज भी नहीं जा पा रहे थे, जो थोड़ी-बहुत सूचनाएँ हमें मिल पा रही थीं उनके मुताबिक भाई से मिले बीस हजार रुपयों में से दस हजार रुपए उसने व्यवस्था बदलने के लिए प्रवीण को दिए थे। हमने दबे स्वर से प्रवीण से इस पर चर्चा करना चाहा तो उसने थोड़ा हँसते हुए कहा, साथी, समाज में रोमैंटिसिजम के लिए भी थोड़ी जगह होनी चाहिए। वो लोग जो आगे चल कर बड़े भौतिकवादी हुए अपने आरंभिक दिनों में घोर रोमैंटिक थे। फिर लालबहादुर तो खुद भौतिक विज्ञानी हैं। आप लोग चिंता न करें और यह अवसर हाथ से जाने न दें। आखिर इस भगवा गढ़ में लाल लाल लहराने और होश ठिकाने लाने का अवसर इतिहास में कितनी बार मिलता है?
हमने अपने होशोहवास दुरुस्त किए और विरोधियों के होश ठिकाने में लग गए; और जैसी कि हमें उम्मीद थी, पहली बार हम हिंदुत्ववाद के उस ढहते ऐतिहासिक कैंपस के ऊपर लाल लाल लहराने में कामयाब हो गए। राजगुरु, सुखदेव, भगत सिंह वी शैल फाइट वी विल विन : थोड़े दिनों तक हम सब भूल गए पीठ के दाग, अपमान की पीड़ा, गालियों की किरचें। और थोड़े समय के लिए लालबहादुर को भी जो चुनाव के बीच न जाने कब गाँव चले गए थे।
वह एक अलसाई-सी सुबह थी, जब वे हॉस्टल के मेरे कमरे का दरवाजा बजा रहे थे। कमरे के अंदर आने पर भी वे अनमने से दिख रहे थे। मैं काफी उत्साहित हो कर उन्हें बता रहा था कि कैसे इस बार हमने इस कैंपस की छाती पर लाल झंडा गाड़ा है, कितनी मुश्किलें हमें आईं और कितना रोचक रहा हमारा चुनाव। लालबहादुर ने किसी बातचीत, किसी सूचना में उत्साह नहीं दिखाया। थोड़े समय बाद उन्होंने कहा कि यदि संभव हो तो मैं शाम को उनसे मिलूँ।
शाम में छिनूपुर के महादेव लॉज के अपने कमरे में लालबहादुर थोड़े सामान्य लग रहे थे। थोड़ी देर बाद जब हमने इंजन की चर्चा छेड़ी तो वे थोड़ा उत्साहित भी हुए। उन्होंने अपने बैग से एक पत्र निकाल कर दिखाया। वह टाटा मोटर्स के किसी रिसर्च विंग के मैनेजर का पत्र था जिसमें लालबहादुर के पत्र का जिक्र करते हुए यह सुझाव था कि पहले वे अपना मॉडल टेस्ट कर लें, तब किसी तरह की कोई बातचीत संभव है।
मेरे पूछने पर कि यह क्या है, वे हैरानी से मेरा चेहरा देखने लगे। क्या है! देखते नहीं टाटा का लेटर है।
वो तो है लेकिन इसमें तो आप के पत्र...
हाँ भई! लेकिन लाखों लोग होंगे, जो टाटा को इस तरह की चिट्ठियाँ लिखते होंगे। कितने लोगों को टाटा जवाब देता होगा। कोई बात होगी मेरे आइडिया में, तब तो जवाब आया।
मैं कुछ और कहना चाहता था, लेकिन लालबहादुर के चेहरे को देख कर चुप लगा गया।
लेकिन इससे क्या होता है... हमारे देश में जीनियस की कद्र कहाँ होती है... विवेकानंद तक को तब पहचाना गया जब अमेरिका में उन्होंने भाषण दिया।
अभी गाँव गया था मैं... इलाके के तमाम संभ्रांत लोगों से मिला, विधायक से भी... टाटा का लेटर दिखाया। बताया कि प्रयोग तो अभी तुरंत करना होगा... जानते हैं समूचे इलाके से कितना मिल पाया... पाँच हजार... वो भी दस जगह से मिला कर।
मुझे लालबहादुर के इस अभियान की कोई जानकारी नहीं थी, मैं अवाक-सा चुप था। आखिर इंजन बनाने के लिए कोई किसी को रुपए क्यों देगा।
पाँच हजार मेरे पास थे, और वो सब मिला कर दस हजार... दस हजार तो लेथ मशीनवाले ने एडवांस ही ले लिया... और... और... और बोलते-बोलते वे रुक गए, लेकिन बाद में बताया कि बनारस वे कल शाम को ही आ गए थे। अपना डिजाइन ले कर, गिलट बाजार के लेथ मशीनों के वर्कशाप में भटकते रहे। लेकिन कोई भी उनकी डिजाइन को समझ नहीं पा रहा था, आखिर वे लोग मजदूर ही तो होते हैं, आखिर में एक तैयार हुआ। यह तो नहीं समझ पाया कि लालबहादुर क्या बनवाना चाह रहे हैं, लेकिन उसने आश्वस्त किया कि जैसा चित्र उन्होंने कागज पर खींचा है, वैसा वह जमीन पर खड़ा कर देगा, आगे का हाल वे जानें, लेकिन वह खुद आश्वस्त नहीं था कि यह चीज बनाने के बाद कोई उसे छुड़ाने आएगा, इसलिए वह पैसा एडवांस में लेने पर अड़ा था। हार कर लालबहादुर को दस हजार देने ही पड़े। अभी तो पच्चीस हजार का और शुद्ध खर्च है, ऊपर से रहना, आना, जाना, खाना, पीना अलग...।
यही सब सोचते-सोचते वे सुबह-सुबह प्रवीण के कमरे पर जा पहुँचे थे। व्यवस्था बदलने में उसने काफी योगदान दिया था। अभी यदि प्रवीण पाँच हजार की भी व्यवस्था कर दे तो...
प्रवीण अभी-अभी सो के उठा था। चुनावों के बाद उसकी पहली गहरी नींद थी। रात में उसकी प्रेमिका उसके साथ थी, जो लालबहादुर के आने के ठीक पहले गई थी, उसकी आँखों में खुमारी थी, नशा था। उसके बदन में आलस्य था और दिमाग हलका था। ऐसी मीठी खुशनुमा सुबह में लालबहादुर का यों धमक पड़ना और पाँच हजार की व्यवस्था करने की बात कहना उसे धीम-धीमे क्रोध की आग में सुलगा रहा था। उसकी जेब में तीन-चार हजार रुपए थे, लेकिन अभी ही उसने अपनी प्रेमिका को वादा किया था कि अपनी जीत की खुशी में उसे एक खूबसूरत तोहफा देगा।
उसने टरकाने की गरज से कहा, ठीक है लालबहादुर, मैं देखता हूँ कि क्या कर सकता हूँ।
नहीं देखता नहीं हूँ। व्यवस्था कीजिए ...और अभी तुरंत मुझे एकाध हजार तो दीजिए ही... मेरी जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं है।
अभी तुरंत कहाँ से लाऊँ, शाम को मिलते हैं... कहते हुए प्रवीण उठ खड़ा हुआ।
लालबहादुर की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा, उनकी टाँगें काँपने लगीं...। उन्होंने कहा, लेकिन साथी... अभी कुछ तो होगा, कहते हुए वे खूँटी पर लटकी कमीज की तरफ बढ़े। प्रवीण उनका इरादा भाँप कर चौंक गया। जेब में तीन-चार हजार रुपए थे... हालाँकि वह कई बार लालबहादुर की जेब से इसी तरह पैसे निकाल लिया करता था, लेकिन आज...। वह बौखला गया और खूँटी की तरफ बढ़ते लालबहादुर के हाथ को पकड़ कर जोर से झटका दिया। साथी! यह क्या मजाक है। किसी की जेब में इस तरह हाथ डालना सभ्यता नहीं है।
लालबहादुर का माथा घूम गया। यह वही प्रवीण था, कितने ही रुपए उन्होंने ऐसे ही यों ही बिना किसी बात की परवाह किए समाज व्यवस्था बदलने के नाम पर उसे दिए थे और आज उसकी जेब, किसी की जेब हो गई थी, लालबहादुर के हाथ किसी के हाथ हो गए थे ...अभी पंद्रह दिन भी नहीं बीते हैं... दस हजार रुपए दिए हुए... क्रोध में लालबहादुर को अपने वही दस हजार याद आए। मेरे वो दस हजार... वो दस हजार अभी वापस करो। वे लगभग चीखने को थे।
प्रवीण अब सामान्य छात्र नेता नहीं था। वह छात्र संघ का अध्यक्ष था, लालबहादुर का यों चीखना उसे अपनी बेइज्जती लग रही थी। उसने लालबहादुर को गिरेबान से पकड़ कर लगभग धकियाते हुए कमरे से बाहर कर दिया। वो दस हजार आपने मुझे नहीं, पार्टी को दिए थे। उसे मैंने अपने ऊपर नहीं, व्यवस्था बदलने में खर्च किया है। समझे आप? निकलिए यहाँ से और यदि ऐसी ही बदतमीजी करनी हो, तो दुबारा आने की जरूरत नहीं है यहाँ।
लालबहादुर को जैसे काठ मार गया था। सुबह जब लालबहादुर मेरे कमरे में आए थे तो वे काठमारे लालबहादुर थे। अभी शाम को जैसे-तैसे वे काठ से मुक्त थे। अभी वे फिर से अपनी तैयारियों में थे। अभी उनकी योजना अपने रिश्तेदारों से मिल कर कुछ पैसा जुगाड़ने की थी ताकि आगे का काम चल सके। मैं फिर से लालबहादुर को समझाना चाहता था, लालबहादुर! आपके विचार अच्छे हैं। इंजन का विचार तो महान है, लेकिन तमाम महान विचार जमीनी हकीकत से टकरा कर दो कौड़ी के हो जाते हैं। और आप तो अपने विचार को हकीकत में जमीन पर लाना चाह रहे हैं? लेकिन मैं जानता था लालबहादुर वैक्यूम मतलब निर्वात में पहुँच गए हैं। उन तक अब आवाज पहुँच नहीं सकती, मेरी क्या, किसी की भी आवाज नहीं पहुँच सकती। मैं महसूस कर रहा था जैसे चुटकियों से रेत फिसलती है, लालबहादुर अपने आप से, अपने परिवेश से, मुझसे फिसल रहे थे। मैं चुपचाप लालबहादुर को उनके अपने निर्वात में छोड़ कर वापस आ गया।
फिर एक सुबह लालबहादुर वैसे ही बदहवास मेरे कमरे पर थे। आ कर उन्होंने बताया कि नीचे रिक्शे में उनकी माँ बैठी हैं। मैं हड़बड़ा कर उनके साथ रिक्शे तक आया। लालबहादुर ने बताया कि वे उनके इंजन को बनते देखने आई हैं। मैंने उनसे पूछा कि कैसा लगा इंजन को बनते देखना।
वे चुपचाप टुकुर-टुकुर मेरा मुँह देखती भर रहीं। बाद में पता चला कि दरअसल वे अपना गहना बेचने आईं थीं। तमाम नाते-रिश्तेदारों के यहाँ से भटकने के बाद लालबहादुर को अपनी माँ की याद आई थी और उन्होंने वही किया जो आम तौर पर माएँ करती हैं। ज्यादा कुछ नहीं था उनके पास, चाँदी का एक मोटा कड़ा और कान की बालियाँ जो उन्होंने लालबहादुर की संभावित पत्नी के लिए सँजो कर रखे थे। लालबहादुर ने बताया कि एक बार इंजन बन जाए, तो ऐसे कड़े, ऐसी बालियाँ तो इतिहास की चीज हो जाएँगी। अभी जिन लोगों ने उन्हें दुरदुराया है, उन सबका क्या होगा दस दिन के बाद?
दस दिन लालबहादुर के बहुत व्यस्त बीते। बंद पत्तों की वह अंधी बाजी थी, जिसमें लालबहादुर ने अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया था, उन्हें यकीन था जब पत्ते खुलेंगे तो उनके हाथ में तीन इक्के होंगे, उनको छोड़ कर सबको पता था कि उन बंद पत्तों में दुग्गी-तिड़ी से ज्यादा कुछ नहीं।
दस दिनों बाद मैं भी इंजन देखने लालबहादुर के साथ गया। चार फुट की लोहे की एक राक्षसनुमा आकृति सामने थी। लेथ मशीन का कारीगर भी, जिसने उस राक्षस को जमीन पर उतारा था, हैरत, विस्मय और भय से उस आकृति को और उसे देखनेवालों को देख रहा था। लालबहादुर ने बताया कि यह मॉडल बन तो गया है, लेकिन यहाँ मिलनेवाले कंप्रेशर पंप से यह काम नहीं कर रहा है। कारीगर ने कहा कि यह किसी भी पंप से काम नहीं करेगा। लालबहादुर ने उसे झिड़क दिया, बल्कि वे उसका गिरेबान पकड़ने पर उतारू हो गए। साले, वैज्ञानिक मैं हूँ कि तुम हो। दो कौड़ी के मिस्त्री... बड़ी मुश्किल से लालबहादुर को शांत किया जा सका। कारीगर इस बात पर अड़ा रहा कि लोहे की उस आकृति को लालबहादुर अब उसके वर्कशॉप से ले जाएँ क्योंकि यह बहुत जगह घेर रहा है, लालबहादुर की समस्या थी कि वे उसे कहाँ ले कर जाएँगे।
लालबहादुर का कहना था कि वे दिल्ली जाएँगे, वहाँ वह पंप मिलता है, जिसकी जरूरत उन्हें इंजन के लिए थी। कारीगर फिर कुछ कहना चाहता था, लेकिन मैंने बीचबचाव कर कहा कि यदि लालबहादुर दस-पंद्रह दिन में नहीं लौटते हैं तो इस ढाँचे को मैं उठा लाऊँगा। कारीगर इस बात पर राजी हुआ कि बीस रुपया प्रतिदिन के हिसाब से इसका भाड़ा होगा।
मैंने लालबहादुर से कुछ नहीं पूछा, कि वे कौन-सा पंप लेने जा रहे हैं, पंप के लिए अब पैसे कहाँ से आएँगे, दिल्ली में कहाँ रहेंगे... कुछ पूछने का कोई मतलब नहीं बनता था। लालबहादुर क्या बताते, और बताते भी तो मैं कितना समझ पाता। मैं चुपचाप अपने हॉस्टल लौट आया। कई दिनों तक लालबहादुर की कोई खोज-खबर नहीं हुई। दरअसल हम लोग भी अब उनसे मिलने से बचना चाह रहे थे। एक बार जरूर हमने अपनी कोर कमेटी की बैठक में प्रवीण के द्वारा लालबहादुर के अपमान का मुद्दा उठाया तो प्रवीण ने हँस कर टाल दिया। छोड़िए साथी, लालबहादुर के लिए और भी संस्थाएँ हैं। उसका इशारा पागलखाने की तरफ था।
धीरे-धीरे हम लोग लालबहादुर को भूलने लगे। हमारी अपनी जिंदगियों के डब्बे भी हमारे इंजन की माँग कर रहे थे। हम भी चुपचाप कैंपस से खिसकने की तैयारी में थे। संजीत बिहार में प्राइमरी स्कूल का शिक्षक हो गया। मंटू आइएएस की तैयारी करने दिल्ली जाना चाह रहा था। मैं भी सोच रहा था कि कहीं दिल्ली, लखनऊ चला जाऊँ। किसी अखबार, किसी चैनल में हाथ-पैर मारूँ। इतनी आपाधापी में कहाँ लालबहादुर और कहाँ उनका इंजन....
बहुत दिनों बाद जे.एन.यू. के गंगा ढाबे पर जब मैं अपने अखबारी दफ्तर के चूतियापे से निजात पाने की कोशिश में था, मुझे अचानक लगा कि सामने लालबहादुर खड़े हैं। दाढ़ी-बाल बढ़े होने के बावजूद यह वही चेहरा था जिसे मैं लाखों की भीड़ में पहचान सकता था। मैं चाय रख कर उसकी तरफ लपका, लेकिन तब तक वह वहाँ से जा चुके थे। मैं चिल्लाया भी, लालबहादुर! लेकिन मेरी आवाज न जाने कहाँ खो गई। जहाँ वह खड़े थे उसके आसपास के लड़कों से मैंने जानना चाहा कि वह कौन शख्स था जो अभी-अभी यहाँ से गया। कोई भी उसे नहीं जानता था। एक लड़के ने, जो गाँजे का सुल्फा सुलगा रहा था, कहा, कौन? वो पगला जो अभी-अभी गया है। अरे वो गाँजे के चक्कर में आता है कभी-कभी। कहाँ रहता है नहीं मालूम, लेकिन शायद मजनूँ का टीला, या ओखला के आसपास कहीं बताता है। मैं निराश हो कर वहाँ से लौट रहा था तो पीछे से उसी गँजेड़ी की आवाज आई, लेकिन बात बहुत डेंजर करता है। कहता है कि आदमी के भीतर जो ताकत है... उसको एक दिन वह डब्बे में बंद कर लेगा और उसका इंजन बनाएगा। मसल्स इंजन... साला... सच में गाँजे में बड़ी ताकत होती है आदमी क्या क्या...।
मैं बिना मुड़े वापस हो आया, मुड़ के देखता भी तो पत्थर होने में कितना वक्त लगता?